चोट


विन्नी बड़े ही मनोयोग से पढाई कर रही थी. परीक्षा करीब थी, साथ ही उसके मोहल्ले में उसकी प्यारी दोस्त की दीदी की शादी थी. वह बहुत खुश थी, तन्वी की दीदी है तो सोचो मेरी भी दीदी है. उसके मन में लड्डू फूट रहे थे, इसीलिए वो पढाई पूरी कर लेना चाहती थी ताकि घर से अनुमति मिलने में कोई कोताही न हो. उस समय मोबाईल का ज़माना नहीं था, इसीलिए घर के लोग सभी जगहों पर जा-जा कर निमंत्रण दिया करते थे. कई दिनों पहले से ही तैयारी शुरू हो जाती थी, ताकि कोई घर छूट न जाए. घर वालों के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी. आखिर वह दिन आ ही गया, वह बड़े उत्साह से अपने कपड़े वगैरह ठीक कर रही थी.
पर उसे क्या मालूम था कि शादी रात में नहीं बल्कि दिन में होने वाली है, वो भी शहर से काफी दूर गिरिजाघर में. जहाँ जाने की अनुमति उसे किसी भी हालत में मिलने से रही. उस समय इतना मेल-मिलाप भी नहीं था, खासकर धार्मिक क्रिया कलाप में. सब अपने-अपने हिसाब से जीते थे, कहने का मतलब अपने-अपने जाति-धर्म के हिसाब से एक दायरा बना लेते थे. परीक्षा की तैयारी में विन्नी इतनी व्यस्त हो गयी थी कि अपनी दोस्त तन्वी, जिसने शादी पर बुलाया था, उससे विन्नी की बात भी नहीं हो पायी थी. उसे बड़ी तकलीफ हुई. खैर बात आई-गयी हो गयी. काफी दिनों बाद जब वह तन्वी से मिली तो तन्वी बड़े ही उत्साह से शादी का पूरा ब्यौरा सिलसिलेवार तरीके से सुनाने लगी.
विन्नी का पालन-पोषण तो हिदू संस्कार के हिसाब से हुआ था. माँ बहुत ही धार्मिक महिला थी. लेकिन पिताजी काफी खुले और उच्च विचार रखते थे. उन्होंने अपनी बेटी को उंच-नीच, छुआछूत जैसी तुच्छ बातों से अलग ही रखा. सब बराबर हैं, चाहे वह कोई भी काम करते हों, उनका पेशा कुछ भी हो, इसीलिए विन्नी हर जगह घुल मिल जाती थी. उसके दोस्तों में सभी धर्म की लड़कियां थीं. सभी के घर में आना-जाना, सबों के साथ खाना-पीना उनके घर आने-जाने में कभी कोई रोक-टोक का सामना नहीं करना पड़ा. धीरे-धीरे वह सभी धर्मों के बारे में बहुत कुछ जान गयी थी और जब भी कोई बहस होती तो वो वहां मौजूद होती और सबों को शांत कर देती. उसकी उपस्थिति मात्र से सब चुप हो जाते. धीरे-धीरे वह सब छूट गया और असल ज़िन्दगी से वास्ता पड़ा. उसने महसूस किया कि कहीं-कहीं लोग ऐसी बातें कर देते हैं जो चुभने वाली होतीं हैं. क्या ये अच्छा न होता कि ऐसी बातें न की जाए. उसकी कोशिश होती कि सभी धर्मों की अच्छी बातें ही याद रखी जाएँ. अगर कोई चुभने वाली बात होती है तो उसे किसी बहस की शक्ल न दी जाए. इस वजह से वह हर समूह में शामिल हो जाती. उसका दायरा विस्तृत था. कभी किसी को चोट पहुँचती तो वह विन्नी को अपना दुखड़ा सुनाकर दिल हल्का कर लेता. इतना ही नहीं विन्नी उस व्यक्ति को भी खरी-खोटी सुनाती जिसने ऐसी बातें की हो, उसे यह एहसास करा देती कि वो गलत है. इस तरह विन्नी का व्यक्तित्व ख़ास हो गया और हर कोई उसके सामने गलत बातें करने से डरने लगा. किसी के घर कोई उत्सव होता, आमंत्रण पर वो जरुर पहुँचती. अपने कार्यालय में कोई भी आयोजन होता तो वह बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती. सभी सह-कर्मी उसकी कद्र करते. लेकिन सचिन और जॉन से उसकी ज्यादा पटती थी. यूँ तो वे दुसरे धर्म से ताल्लुक रखते थे मगर बातचीत में कभी कोई चुभने वाली बात नहीं होती थी और सभी खुले मन से स्वीकार करते थे कि अमुक धर्म में अमुक बातें निरर्थक हैं या सार्थक हैं. समय के साथ सभी धर्मों में बदलाव की गुंजाइश रहती है.
राजनीति की भी बातें होती यानि की हर तरह की बहस होती लेकिन शान्ति से. कोई तीसरा उनके बीच आता तो उसे बड़ी हैरत होती. उस दिन सोमवार था. वह अपनी मेज़ साफ़ कर रही थी तभी जॉन सामने आकर खड़े हो गए, "मैडम, आपको आना होगा, शुक्रवार को मेरी शादी है. शादी तो चर्च में होगी लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि आप मना नहीं करेंगी." उसने बिना देर किये जवाब दिया, "ना का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, आप निश्चिन्त रहें. मैं आवश्य आउंगी." जॉन तो चले गए लेकिन विन्नी कार्ड को उठाकर देखने लगी और अतीत में चली गयी. कैसे चर्च की शादी देखने के लिए वो उत्सुक थी लेकिन वो मौका उसे नहीं मिला, आज भगवान ने उसे यह मौका वापस दे दिया, धन्य हैं प्रभु!
देखते ही देखते शुक्रवार का दिन आ गया. वह बड़े ही उत्साह से चर्च के गेट पर पहुंची और चारों और देखने लगी तभी उसकी नज़र दुल्हन पर पड़ी. सादे लिबास में सजी दुल्हन को देखकर ऐसा लग रहा था मानो अभी-अभी कोई परी आसमान से उतरी हो. जॉन के परिवार के सदस्य उसे बड़ी आत्मीयता से अन्दर ले गए. विवाह का कार्यक्रम शुरू हुआ, पादरी ने आकर विधान शुरू किया. वह बड़े ही उत्सुकता से देख रही. दूल्हा-दुल्हन की स्वीकारोक्ति हुई. फिर पादरी का प्रवचन शुरू हुआ, अभी तक सबकुछ ठीक चल रहा था. वह बड़े ही तन्मयता से सारे कार्यक्रम देख सुन रही थी जो उसके लिए बिलकुल नया था. तब कुछ ऐसा हुआ जिससे उसके कान खड़े हो गए, पादरी साहब का प्रवचन- "मैंने अपने धर्म की कई औरतों को हिन्दू स्त्रिओं की तरह मांग में सिन्दूर लगाते देखा है. आपलोग हिन्दू स्त्रियों की नक़ल न करें. हिन्दू स्त्रियाँ तो पेड़-पौधों और पत्तियों की भी पूजा करती हैं. भला ये क्या बात हुई. पेड़-पौधों, पत्तियों की पूजा करने का क्या औचित्य है? आपलोग मसीही हैं और अपने ही विश्वास को साथ रखें."
विन्नी को लगा जैसे उसके ह्रदय पर किसी ने भारी पत्थर से वार किया हो.उसकी इच्छा हुई बस दौड़ कर वहां से भाग जाए. बस व्यवहारिकता का तकाजा सोचकर किसी तरह अपने ऊपर काबू रख पायी. किसी तरह उसने अपने चेहरे पर नकली मुस्कान लाकर सबसे विदा ली. जैसे-तैसे चर्च के गेट से बहार निकली. उसने अपनी स्कूटी किनारे की और एक रेस्टोरेंट में कॉफ़ी का आर्डर दिया. जैसे ही वह फुर्सत से बैठी उसके मन में विचारों की आंधी चलने लगी. उसका मन उसे धिक्कार रहा था. क्या तुम अपने धर्म की कटु आलोचना सुनने आई थी? वह किसे दोष दे, खुद को, अपने सहकर्मी को या पूरी सामाजिक व्यवस्था को?
कॉफ़ी की एक घूँट ने उसे तरोताज़ा कर दिया. उसकी आत्मा ने निर्णय दे दिया. उसके सहकर्मी का कहीं से भी कोई दोष नहीं है. उसने कितनी आत्मीयता से उसे आमंत्रण दिया था और उसके वहाँ पहुंचने पर लोग किस तरह आभार जता रहे थे. आज भी उनके सम्बन्ध उतने ही मधुर बने हुए हैं. बस अब वह ऐसे किसी कार्यक्रम में जाने से बचने लगी है, क्योंकि वह उस चोट का एहसास दुबारा नहीं करना चाहती.  

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