जीवनदायिनी


आज गुरु पुर्णिमा का दिन है. दूरभाष की घंटी बजी और मैंने शंकित ह्रदय से फ़ोन पकड़ कान तक बढ़ाया- "दादी माँ नहीं रहीं"- नहीं रहीं? ऐसा लगा जैसे ह्रदय के तार आपस में उलझ गए और उससे ही आवाज़ आ रही है. उसे सुलझाने के लिए चुपचाप बैठने के अलावा और क्या किया जा सकता था.
कल श्रावण मास शुरू हो रहा है. बरसात आते ही वह आह्लादित होकर हमें गाँव में धान रोपनी के समय के कितने किस्से सुनाया करती थी. कितने गीत पूरे लय में गाया करतीं और हम सारे भाई-बहन भाव विभोर होकर सुना करते। कैसे मजदूर लोग धान रोपकर आते साथ में उनके छोटे बच्चे भी कीचड़ में सने हुए खिलखिलाते खाने पर टूट पड़ते। कैसे उन्हें अँचार बांटने में बड़ा आनंद आता था. बच्चे निहारते रहते। किसी दिन वह छोटे-छोटे पौधे लेकर अपने चाचाजी के साथ खेतों पर निकल पड़ती और किनारे-किनारे रोपने में बड़ा आनंद आता था. जब हम सब उनके साथ नानी के घर जाते तो अपने रोपे हुए पौधे जो काफी बड़े हो चुके थे बड़े गर्व से हमें दिखती थीं. घर के समीप भी कुछ पेड़ थे जिनसे उन्हें लगाव था. शायद यही वजह रही होगी मुझे भी पेड़ पौधे से आत्मिक लगाव है. मुझे आज भी फ्लैट वाली ज़िन्दगी भयभीत करती है. जब मैंने अपना घर बनाया उन्होंने मुझे एक अनार का पौधा दिया अपनी छोटी सी फुलवारी में लगाने के लिए आज वह बड़ा हो चूका है और फलों से लदा हुआ झुक सा गया है. लगता है उस जीवनदायिनी का ही दूसरा रूप है.
मेरे छोटी सी फुलवारी है लेकिन मैंने उसके किनारे आम अमरुद के पेड़ भी लगाए हैं. जब अमरुद में उसके फूल लगे थे तो मैंने अपनी छोटी बिटिया को दिखाया था. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि ये छोटा सा फूल अमरुद कैसे बन जाएगा। धीरे-धीरे उसने महसूस किया और समझ भी गयी. कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जिन्हें प्रकृति के सानिध्य में ही समझा जा सकता है.अपना बचपन याद आता है तो लगता है हम हमारी पीढ़ी को प्रकृति का सानिध्य अनायास ही मिल जाया करता था लेकिन आज उसके लिए उद्यम करना पड़ता है. छोटी-छोटी हरी-भरी बालकनी को देखकर एक सुखद एहसास होता है. हमें अपने बच्चों को प्रकृति का सानिध्य देने के लिए यथा संभव कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। आज हमारी ज़िन्दगी यंत्रवत हो गयी है, हमारे चारों तरफ सुविधाओं का अम्बार लगा हुआ है पर हम चैन और सुकून से कोसों दूर हो रहे हैं.
उफ़ मैं कहाँ खो गयी. अभी अब माँ के पार्थिव शरीर की अंतिम यात्रा की तैयारी करनी है. कुछ क्षणों पहले वो हमारी माँ थी, अब स्थूल शरीर है. मैं देख रही हूँ. वह उसी आम्रवृक्ष की छाँव में लेटी हुई है जिसे उसने सींचा था. निश्चिंत सो रही है. कभी बोलती थीं मैं बहुत थक गयी हूँ, मुझे सोने दो, मुझे तंग मत करना मत उठाना, मैं अपने मन से उठूंगी। उन्हें नहीं जगाउंगी। सारी महिलाएं आ गयीं हैं, उन्हें अच्छे से तैयार कर विदा करने के लिए. आ गयी वह घडी. बड़ा ही कारुणिक दृश्य है. वह स्कूल के बच्चों की बड़ी मैडम थीं. तेजस अपने माथे को छू रहा है. बड़ी मैडम उसे चुम कर बोलेंगी तू तो खूब पढ़ रहा है इसलिए तेरा माथा चमक रहा है.
शिक्षिकाएँ उनसे अपना दुःख साझा करतीं थीं. एक माँ की तरह वह सबको ढांढस बंधाती। सभी अश्रपूर्ण नेत्रों से भारी मन से अपने पग बढ़ा रहीं हैं. पर वह आम्रवृक्ष स्थिर खड़ा है और कह रहा है, 'माँ तू मेरे साये में लेटी रही मैं धन्य हो गया. तूने मुझे सींच-सींच कर इतना बड़ा किया कि मैं तेरे काम आ सका. मैं वहां तक तो नहीं जा सकता लेकिन वहां भी मेरे बंधू-बांधव ही होंगे जो तेरे कण-कण में विलीन होने तक तेरे साथ ही रहेंगे।' हल्की-हल्की बूँदें पड़ने लगीं, लगा आसमान भी रो पड़ा.

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