चूक


बात सालों पहले कि है जब मैं स्थानांतरण की प्रक्रिया के तहत नयी जगह में पदस्थापित हुई थी. अमूमन थोड़ी सी दिक्कत होती ही है नयी जगह में एडजस्ट होने में. मैं भी उसी दौर से गुज़र रही थी. छः या आठ दिन हुए  होंगे. सोमवार का दिन था. मैं अपने कार्यालय के टेबल को सहेज रही थी कि अचानक एक ठहाका, मस्त हंसी ने मेरा ध्यान खींचा. बड़ी ही अल्हड़, मस्त हंसी थी जो सबके बस की बात नहीं थी और वह भी एक महिला कि हंसी थी. थोड़ी देर के लिए तो मैं भी हतप्रभ रह गयी. इसके पीछे का कारण संस्कार कह लीजिये, यही सिखाया गया था कि लड़कियों को ज़ोर से नहीं हँसना चाहिए, ज़ोर से बात-चीत नहीं करनी चाहिए वगैरह वगैरह. चलिए छोड़िये, अब मुद्दे पर आती हूँ.

उससे मेरा परिचय कराया गया था, आप छुट्टी में थीं. रूचि ने आठ दिन पहले योगदान दिया है. उसने अपना परिचय, मैं शालिनी बड़े ही गर्मजोशी से हाथ मिलाया. शुरू-शुरू में मैं थोडा दूर-दूर ही रहती थी लेकिन धीरे-धीरे मैं उनके काफी नजदीक हो गयी. फिर काफी अंतरंग बात-चीत भी होने लगी और मैंने पाया जैसा वह बाहर से दिखती थी वैसी ही वो अन्दर भी थी. उनकी स्वच्छंदता, उन्मुक्तता अब मुझे गलत नहीं लगती थी. अपने काम में भी वो उतना ही दक्ष और जल्दी निबटाने वाली थी. किसी को कुछ भी कहना हो, एकदम मुँह पर ही कह देना. मुझे उनकी बेबाकी भी अच्छी लगती थी. अब थोडा घर-परिवार की बातें-- उनका स्वाभाव जितना स्वच्छंद, उन्मुक्त था उनके पति महोदय का बिल्कुल उलट था, शांत, अत्यंत ही धीमी आवाज़ में बात करना, तीन बच्चों की पढ़ाई अच्छी तरह चल रही थी. बड़ी बेटी को उन्होंने विदेश भेज दिया, उसके बाद वाले को दुसरे शहर में भेजा. तीसरा भी होस्टल जाने को था. वह पूरी तरह फ्री थीं. उनका यह मानना था कि बच्चे बाहर रहने से अपनी ज़िम्मेदारियों को अच्छी तरह समझ पाते हैं. बात कुछ हद तक सही भी थी. कुछ लोगों को तो ईर्ष्या भी होती, वाह, इस उम्र में भी कितनी फ्री हैं. घर के झंझट काफी कम कर लिए हैं मिसेज शालिनी ने और वह इस बात से काफी प्रसन्न होती. जहाँ कहीं भी जाना हो चल दी, कोई बंधन नहीं. जब छुट्टियाँ आती तब थोड़ी गहमा-गहमी होती, और वह काफी परेशान रहती. ऑफिस में खाली समय होने पर उनका यही रोना रहता जल्दी-जल्दी छुट्टियाँ ख़त्म हो जाए, बहुत परेशानी है. कहने का मतलब है--- बच्चों के साथ रहने के आनंद को वह उतना महसूस नहीं कर पाती थी शायद इसीलिए परेशानी उनपर हावी हो जाती थी. यूँ कहें कि वो बच्चों के साथ रहने का संतुलन नहीं बना पाती थीं. उनका यह मानना था कि ज़रूरत कि सारी चीजें तो उनको सही समय पर मुहैया कर ही देती हूँ, उनके भविष्य के लिए भी संजो रही हूँ फिर और क्या करूँ?
देखते ही देखते बच्चे बड़े हो गए, बेटे कि शादी कर दी. बेटे कि शादी में मैं भी शामिल हुई थी. क्या ठाठ थे! इतना बड़ा उनका घर. अहाते में पिकनिक स्पॉट जैसा नज़ारा था. फिर शालिनी भी काफी दमक रही थी. उपहारों के ढेर लग गए थे. वह भी इन मौकों पर हर जगह पूरी तैयारी के साथ शामिल होती थी. पार्टियों में जाना उनका ख़ास शौक था.
बेटी को विदेशी वातावरण अत्यधिक भा गया और उसने शादी पर विचार करने से इनकार कर दिया. बेटे का परिवार बढ़ा और पता नहीं एक दिन क्या बात हो गयी उसने अलग रहने का निश्चय कर लिया और एक शहर में ही उतने बड़े घर को छोड़कर बेटा-बहु अलग घर लेकर रहने लगे. मिसेज शालिनी ने स्वेच्छिक सेवानिवृति ली थी ताकि बेटे, बहु और पोते के साथ घर में समय बिताउंगी. शायद आरंभिक ज़िम्मेदारी और उन्मुक्तता को भरना चाहती हो. लेकिन अचानक बेटे-बहु का इस तरह चले जाना उन्हें तोड़ गया. घर ख़ाली-ख़ाली लगने लगा. खैर छोटा बेटा अभी पास ही था. उसकी पढ़ाई अभी ख़त्म नहीं हुई थी. पर नियति का चक्र कब, कहाँ और कैसे घूमे ये कोई नहीं जानता. ऊपर वाले का कहर भी अभी ही पड़ना था, उनके छोटे बेटे को असमय छीन लिया. किसी तरह बेटी स्वदेश आई. अंतिम संस्कार ख़त्म होते ही उसने वापस जाने का अपना फैसला सुना दिया.बहु एक शहर में रहते हुए भी औरों की तरह खानापूर्ति कर चली गयी. मिसेज शालिनी को देखा तो समझ नहीं आया की वह वही हैं, हंसने की बात तो छोड़ ही दीजिये उनका तो बोलना ही बंद हो गया था. समय की मार कैसी होती है ये मुझे आज अच्छी तरह समझ में आ गया था. सुना था ऊपर वाले की लाठी में आवाज़ नहीं होती, आज प्रत्यक्ष रूप से उसका एहसास हो रहा था. मेरा मन उद्द्वेलित हो उठा. मैं कितने दिनों तक यही सोचती रही. शुरू से लेकर अब तक हालांकि बीच में काफी अंतराल हो गया, स्थितियों का आकलन करने बैठी तो-- मन कई प्रश्न कर उठा-- चूक कहाँ हुई? मिसेज शालिनी झंझटों से हमेशा दूर रहना चाहती थी. सबों को अपने हिसाब से शहर के छात्रावास में, दुसरे शहर में यहाँ तक कि विदेश भेज दिया. खर्च भी उन्होंने काफी किया लेकिन एक चीज़ छूट गयी, एक चूक हो गयी. वह अपना समय बच्चों के साथ पूरी तरह साझा नहीं कर पायीं. उसमे काफी कोताही बरती गयी थी. अनजाने में ऐसा नहीं हुआ था. ऐसा किया गया था ताकि अपने लिए प्रचुर समय हो,अपने तरीके से ज़िन्दगी जी पायें. ऐसा सोचना एकदम गलत भी नहीं है-- लेकिन बच्चों ने शुरू से वही देखा और सीखा, हालांकि आज की तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में किसी के पास भी समय नहीं है लेकिन उसी समय में से ज़रूरत के हिसाब से अपनों के लिए समय निकाला जाता है. थोड़ी झंझट भी मोल ली जाती है ताकि अपनापन ख़त्म न हो. वास्तव में वही सुखी हैं, वर्ना इस भौतिकवादी दुनिया में आप सुविधाएं जितनी चाहे जुटा सकते हैं लेकिन सुख नहीं ढूंढ सकते.

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