ततैये का डंक


हम इस विराट प्रकृति में अकेले नहीं हैं. हमारे साथ असंख्य जीव-जंतु, वनस्पति भी धरती पर मौजूद हैं. गाहे-बगाहे हमें इनसे दो-चार होना ही पड़ता है. कुछ हमें भाते हैं और कुछ बिल्कुल नहीं. कुछ जीव-जंतु, कीड़े-मकौड़े तो डर का कारण बन जाते हैं. लेकिन हमारे चाहने न चाहने से कुछ नहीं होने वाला. यह धरती सबकी है और सबों को अपने-अपने तरीके से जीने का अधिकार उसी परम शक्ति के द्वारा दिया गया है. ज़रा सोचिये, राह चलते कोई कांटेदार पौधा हमसे टकरा जाता है, कोई कीड़ा हमें काट लेता है, क्या करते हैं हम? ये सभी घटनाएं हमें सावधान ही नहीं करतीं हमें जीने का सलीका भी सिखाती हैं.
हल्की-हल्की बूंदा-बंदी हो रही थी. स्कूल की छुट्टी के बाद बच्चों का अड्डा हुआ करता था झुका हुआ अमरुद का पेड़. यूँ तो और भी अमरुद के पेड़ थे लेकिन उन पेड़ों पर चढना थोडा मुश्किल था. इसीलिए उन पेड़ों पर पके अमरुद ज्यादा मिलते थे. कुछ गिने-चुने बहादुर ही चढ़ पाते थे. ऐसी ही बहादुर कि श्रेणी में रेणु और मृणाल आते थे. यों तो दोनों की उम्र में फासला काफी कम था लेकिन रिश्ते में दोनों माँ-बेटी यानि कि मौसी और बेटी थीं. इस वजह से रेणु को मृणाल (जो रिश्ते में मौसी थी) का थोडा ज्यादा ही ख्याल रखना पड़ता था. ऐसे वक्त पर झगडा भी खूब हुआ करता था. दोनों ने एक अमरुद के पेड़ पर अपने लिए कुछ अमरुद चुन रखे थे. उन्हें मालूम था कि दूसरा कोई तो उन्हें तोड़ नहीं सकता एक को छोड़ कर. रेणु को डर था कि कहीं मृणाल उसे न तोड़ ले वहीँ मृणाल को डर था कि कहीं रेणु उसे न तोड़ ले. दोनों स्कूल की छुट्टी के बाद घर पहुँची. रेणु सीधे अमरुद के पेड़ पर चढ़ गयी. मृणाल ने इधर-उधर देखा, रेणु को वहाँ न पाकर वह सीधे बगीचे की ओर दौड़ी और वही देखा जिसका उसे डर था. रेणु पेड़ पर चढ़ चुकी थी और उस डाल कि ओर पहुँच रही थी. उसने आव देखा न ताव और सरपट पेड़ पर चढ़ गयी.
जल्दी-जल्दी चढ़ते में क्रम में उस डाल पर ततैया का छाता हिल गया और सैकड़ों ततैये चारों ओर उड़ने लगे. रेणु अमरुद तोड़ चुकी थी लेकिन उसे सूझ नहीं रहा था कि नीचे कैसे उतरा जाए. कितने ततैये उसके सिर पर डंक मार चुके थे. वह काफी परेशान होकर धीरे-धीरे नीचे उतरने लगी. मृणाल का भी वही हाल था.
रेणु ने कहा, "तुमने इतनी हडबड की थी अब समझो."
मृणाल का जवाब था, "तुम क्यों फट से आकर पेड़ पर चढ़ गयी?"
उतरने तक उनकी नोक-झोंक चलती रही. फिर एक अपने राह और दूसरी अपने राह, दोनों पर ततैये का डंक असर कर रहा था. स्कूल का सबक भी याद नहीं कर पायी. दरवाज़े पर मास्टर साब के पास रोज आठ बजे तक पढने का समय था. किसी तरह समय बिताकर के दोनों अपने-अपने कमरे में जाकर सो गयीं.
जब खाने का वक्त हुआ तब खाना परोसने वाली को बड़ा ताज्जुब हुआ. दिन में तो अच्छे भले थे अभी क्या हुआ कि दोनों गायब हैं? ज़रूर तबियत ख़राब हुई है. दोनों की माताओं को खबर की गयी. दोनों चिंतित हो अपनी लाडली की खोज-खबर लेने गयी तो पता चला कि दोनों तो बेसुध सो रही हैं. देह तप रहा है, हो न हो मियादी बुखार आया है. दोनों की माताओं ने आपस में विचार विमर्श किया और रोकथाम कि दवा दी गयी. खैर, सुबह हुई. रेणु को लगा जैसे एक रात में ही उसके सर का वजन १० गुना बढ़ गया है. वह सिर पकडे-पकडे उठी और बाहर की तरफ चल दी. दैनिक क्रियाकलापों में निवृत फिर सोने चली गयी. मैंने पुछा- "क्या हुआ है?" उसने जवाब दिया "कुछ भी तो नहीं बस सिर दर्द कर रहा है." और बातों को पचा गयी. बस उसने इतना पुछा, "मृणाल कहाँ है, उससे मिलने का मन कर रहा है." माँ मृणाल के कमरे में गयी तो देखा- वह भी रेणु की तरह बेसुध है. खाने-पीने की कोई परवाह नहीं. उसे उठाकर रेणु के कमरे में ले आई. बोली तुम दोनों बातें करों तो आलस भागेगा. मैं कुछ खाने को लाती हूँ.
अब एकांत था. दोनों भुक्त भोगी थीं लगा जैसे दो दुखियारी अरसे बाद मिली हैं. दोनों एक दुसरे पकड़ कर रो रही थी और अपना दुःख हल्का कर रहीं थीं. बातचीत यूँ थी- "मेरा सिर तो लगता है फट जाएगा." दूसरी का कहने था, "लगता है मेरे सिर पर एक मन का बोरा रखा हुआ है. मन करता है पूरे बाल नोंच डालूँ लेकिन डर लगता है. माँ जान जायेगी तो हमारा अमरुद के पेड़ पर जाना सदा के लिए बंद कर दिया जाएगा." दूसरी ने ढांढस बंधाया- "छोड़ो किसी तरह हमें बर्दाश्त करना है. किसी के सामने सिर मत खुजलाना. देखो न कितने बड़े-बड़े फोड़े हो गए हैं. ये तो बाल से ढंके हैं इसीलिए पता नहीं चल रहा है."
इस तरह उन दोनों बच्चों कि बर्दाश्त की शक्ति काफी बढ़ गयी थी. मृणाल बोली, "अब मैं अपने कमरे में जाती हूँ. सो गयी तो फिर उठ नहीं पाउंगी." तब तक रेणु की माँ आ गयी और उन्होंने कहा, "कुछ खा लो तब जाना. क्या हो गया है तुम दोनों को? किसी कीड़े ने काट तो नहीं लिया? ठीक-ठीक याद करो. पता होने से सही दवाई पड़ेगी तो जल्दी ठीक हो जाओगी." दोनों ने एक दुसरे की ओर देखा- लगा जैसे चोरी तो नहीं पकड़ी गयी. दोनों एकदम चुप. और फिर इस तरह इस घटना का पटाक्षेप हो गया. सबों ने यही माना कि मियादी बुखार है. वे दोनों रोज़ एकांत में मिलती, और एक दुसरे का कुशल-क्षेम पूछतीं. इतने प्यार से बातें होती कि पूछिए मत. यह भी चर्चा का विषय हो गया, आजकल रेणु और मृणाल की काफी पटने लगी है, इतना प्यार जताती हैं एक दुसरे पर. कोई जवाब दिए देता- बुखार की मारी हैं दोनों, और क्या करेंगी? घर में बैठे-बैठे मन नहीं लगता होगा. कम से कम एक दुसरे से बात तो कर लेतीं हैं.
उन्हें क्या पता था कि ततैयों के डंक ने उन दोनों को एक दिन में कितना परिपक्व बना डाला है. इतनी सहनशक्ति तो बड़ों में भी शायद ही होती हो. सिर नहीं खुजाना है, लोग जान जायेंगे. अपने चेहरे के भाव को खुशनुमा बनाए रखना है, जैसे कुछ हुआ ही न हो. वाह रे ततैया! किसी को यह पता न चले कि ततैया के डंक का दंश वे दोनों झेल रहीं हैं. इतनी गोपनीयता तो कार्यालय के किसी गोपनीय फाईल में भी नहीं रहती होगी!
समय से दोनों बच्चियां ठीक हो गयीं और उनकी माताओं को कुछ भी पता नहीं चल पाया. फिर दोनों के रास्ते भी अलग-अलग हो गए. ज़िन्दगी की डगर सीधी तो होती नहीं. कितने उतार चढाव होते हैं. संयोग कह लीजिये कि जिस शहर में रेणु की नौकरी थी उसी शहर में मृणाल के पति भी रहने आ गए. अजीब इत्तेफाक हुआ, रेणु अपनी बुआ के घर पहुँची थी. उन्होंने बातों ही बातों में ज़िक्र किया, "कोई मृणाल नाम की महिला तुम्हारे बारे में पूछ रही थी." कौन मृणाल? कहाँ की रहने वाली? एक ही सांस में रेणु पूछ बैठी कहाँ है? क्या उन्हें बुला देंगी? और सचमुच दस मिनट बाद मृणाल वहाँ पहुँच गयी. दोनों बड़ी गर्मजोशी से मिलीं. उन्हें ऐसा लग रहा था मानो कोई सपना देख रही हों. बिताये गए सारे पल एक-एक कर के स्मृति पटल पर आते जा रहे थे. आँखों से आंसू के मोती झरते जा रहे थे. अगल-बगल के लोग अपलक देखे जा रहे थे. अचानक एक ततैया बाहर कि ओर से उड़ता हुआ घर के अन्दर आया. सब तितर-बितर हो गए. भागो-भागो. पर वे दोनों सखियाँ नहीं हटी. वे उस ततैये को बड़े गौर से निहार रही थीं. तभी वे एक-दुसरे को देख कर बड़ी ज़ोर से हस पड़ीं. ठहाके लगाने लगीं. सबों ने देखा कि ततैया भाग गया और सभी यथावत आकर बैठ गए. बहुत सारी इधर-उधर की बातें हुई. चाय-नाश्ते की औपचारिकता भी हो गयी. अब विदा होने का समय आ गया.
वे दोनों सबों की प्रणाम-पांति करते हुए बाहर निकल गयीं. एक ख़ामोशी व्याप्त थी. इतने दिनों के बाद मिली और फिर तुरंत बिछड़ना था. रेणु ने ख़ामोशी तोड़ी- "देख मृणाल, याद है न वह ततैये का डंक. उसने हमें कितना करीब ला दिया था. सारी कलुषता उस एक डंक ने धो डाली थी. और आज जब हम मिले तो फिर एक ततैया पहुंचा, कहीं वह याद दिलाने तो नहीं आया था? कौन जाने भगवान किस रूप में सामने आ जाएँ! कहीं हमारे पुनर्मिलन में उसकी ही भूमिका हो?" मृणाल ने रेणु कि ओर आश्चर्य की दृष्टी डाली और कहा, "शायद तुम सही हो." फिर मिलते रहने का वादा कर दोनों अपने-अपने रास्ते चल पड़ीं.

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