जकड़न


वर्षा ऋतू की विदाई हो चुकी है. अभी-अभी दशहरा समाप्त हुआ और दीवाली आने को है. चारों तरफ साफ़-सफाई की जा रही है. मैंने भी कुछ करने की सोची. शुरुआत मैंने अपनी छोटी सी फुलवारी से की है. मुझे प्रकृति का सानिध्य अत्यधिक पसंद है. सर्दियों के दिन तो फूल-पौधों के साथ ही बीत जाया करते थे. सफाई के दौरान मैंने देखा एक बड़े ही प्यारे पौधे को बेलों ने जकड़ रखा है. उसके अस्तित्व पर ही संकट आ गया है. मैंने बड़ी ही मुश्किल के बाद उस जकड़ को हटाया, पानी दिया और पौधे की रंगत देखने लायक थी. 
अनायास मेरे मस्तिष्क के किसी कोने में हलचल हुई और मैं खो गयी. अतीत के वे पन्ने पलटते चले गए और अटक गए अस्सी के दशक में.
वह दौर था मैंने बी. एससी. (B. Sc.) भी पास किया था. कैसे-कैसे सपने थे और क्या कुछ हुआ. मेरे बाबूजी एकदम से अपने आप में सिमट गए थे. किसी भी रिश्तेदार से उनका कोई मतलब नहीं रह गया था. सिवाय पांच सदस्य- बच्चे और उनकी माँ बस इतनी सी ही थी उनकी दुनिया. बाहर दफ्तर में सिर्फ कुर्सी और मेज़. तनख्वाह मिलती, माँ के हाथ में देकर निश्चिंत हो जाना. अब माँ उसमें मगजमारी कर सारे खर्चे करती और कैसे भी हो किसी तरह हमारा महीना चल जाता. हम सब भाई-बहन इस बात को समझ चुके थे और इसीलिए कभी कोई इच्छा या ज़रूरत माँ को नहीं बताते. मैं सबसे बड़ी थी इसीलिए मुझे कभी-कभी भविष्य की चिंता होती, क्या होगा, आगे कैसे चलेगा छोटे भाई-बहनों की पढाई वगैरह-वगैरह. माँ के पिताजी रिश्ते में नाना लगते थे, लेकिन मेरा मन कभी उन्हें नाना स्वीकार नहीं कर पाया इसीलिए कि उन्होंने मेरी माँ को बेटी ही नहीं समझा. काफी धनाढ्य, मान-प्रतिष्ठा वाले अपने इलाके में उनकी तूती बोलती थी, भला वे ऐसी बेटी से रिश्ता क्यों बनाये रखते जहां जाने से उनके मान-सम्मान को ठेस पहुँचती हो अलबत्ता दूसरी बेटियों से बड़ा प्रगाढ़ सम्बन्ध था. समय-समय पर वे वहाँ जाते और मान-सम्मान पाते बदले में कुछ लेकर भी जाते. मुझे जब ये बातें पता चलीं तो लगा- रिश्ते भी बराबरी में ही निभाये जाते हैं. इन बातों का ज़िक्र यहाँ करने का मतलब यही है कि एक परेशान और विपन्न बेटी को एक संपन्न, प्रतिष्ठित और सम्मानित पिता से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. बचे भाई, उन्होंने भी किनारा कर लिया जैसे ये सब तो पिता का दायित्व होता, मुझे भला इन सब से क्या लेना. अब बचे इधर-उधर के रिश्ते- उनका तो कोई कर्त्तव्य नहीं होता या यूँ कहें किसी की परेशानी से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है. बात यहाँ तक हो तो ठीक है- लेकिन लेना-देना है. लोग क्या कहेंगे, ऐसा क्यूँ है, वैसा क्यूँ है आदि-आदि.
उन लोगों ने हमारी ज़िन्दगी में ताक-झाँक करना जारी रखा. कभी अनायास कोई आ जाता और सहानुभूति के दो बोल बोल जाता, बदले में चाय नाश्ता कर चला जाता. माँ कि कोई बहन आ जाती और दुखती रग पर हाथ फेर जाती- बच्चे ठीक से पढ़ रहे हैं, अगर नहीं तो भविष्य क्या होगा?
अरे वर्तमान की बात तो करो. नहीं उन्हें हमारे वर्तमान से कोई लेना-देना नहीं है. बातें इतनी तक रहती तो ठीक था, उनलोगों ने मुझे और मेरे भाई को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया. तुम बड़ी हो, कुछ सोचो, ऐसे कैसे चलेगा, मेरे भाई जिसने अभी-अभी दसवीं की परीक्षा पास की थी. बड़े लड़के हो तुम्हें तो कुछ सोचना चाहिए.
एक दिन तो हद ही हो गयी. एक रिश्तेदार को अपने बेटी एवं दामाद सभी को कलकत्ता भेजना था, पूरे सामान के साथ. उस रिश्तेदार ने मुझे खबर भेजी "अपने भाई को भेज दो, मेरे बेटी-दामाद के साथ चला जाएगा और उनके सामान वगैरह उठाने में मदद कर देगा ताकि वे बिना किसी तनाव के अपना सफ़र तय कर सकें." मैंने हाँ-हाँ कहकर बात ख़त्म कर दी. जब फुर्सत में बैठी तो---
ये लोग तो हमें कमज़ोर समझ कर जकड़ने लगे हैं. एक पढने वाले बच्चे को कैसे-कैसे काम में फंसाने की कोशिश कर रहे हैं. मैंने अपने भाई को जाने से मना कर दिया. जब उन रिश्तेदार को ये बात पता चली तो वे मेरे जानी दुश्मन बन गए.
अब उनकी टारगेट पॉइंट थी मैं- (एक अविवाहित लड़की जिसके पिता गैर-ज़िम्मेदार कहे जाते हैं क्योंकि उन्हें अपनी बेटी की शादी की चिंता नहीं है) पर उन्हें क्या पता- उसी पिता ने अपनी बेटी को ऐसी शिक्षा दी है कि वह चट्टान की तरह इस दुनिया का सामना कर सकती है. मुझे अपने पिता पर गर्व था तब भी और अभी अब भी क्योंकि उन्होंने शादी जैसे शब्द को मुझपर लादने की कोशिश नहीं की.
एक दिन एक चाचाजी आये और माँ को भला-बुरा सुनाने लगे, "उसे (भाई) तो कोई चिंता नहीं है. तुम्हें (मेरी माँ) तो बेटी की शादी की चिंता होनी चाहिए." उनकी बक-बक कुछ ज्यादा होने लगी तो मेरे पिताजी सामने आये और उन्होंने जो कहा- "मेरी बेटी जब शादी करना चाहेगी, तब करेगी." 
मेरे चाचा ने उन पंक्तियों का उपहास कर किनारा कर लिया था. लेकिन मेरे लिए वो पंक्तियाँ मील का पत्थर (माइलस्टोन) बन गयीं. कितनी ऊँची सोच थी और कितने आगे की..
आज यह सामान्य बात हो गयी है. लड़कियां अपनी ज़िन्दगी के फैसले खुद लेती हैं, और माता-पिता उसपर मुहर लगा देते हैं.
मैंने उन रिश्तों की जकड़न को ढीला करना शुरू किया और अपने आप को पूरी तरह से पढ़ाई को समर्पित कर दिया. प्रतियोगिता परीक्षा में बैठने का फितूर सवार हुआ, बहुत सारे ताने-बाने के तीर हृदय को बिंध जाते थे लेकिन फिर समय उन्हें ठीक कर देता था. प्रतियोगिता परीक्षा का परिणाम आया बादलों से आच्छादित आकाश में हल्की सी सूरज की किरण कहीं से निकली हो उसी तरह मेरी ज़िन्दगी में ख़ुशी बनकर आया वो परिणाम, कुछ अनजाने लोगों ने ही मेरे माँ को उस अखबार की प्रति दिखाई थी और बड़े ही ख़ुशी से कहा था- "आपकी बेटी ने तो गाँव का नाम ऊँचा कर दिया." वे हमारे रिश्ते में नहीं थे इसीलिए हमारी ख़ुशी में शरीक हुए थे.
अब जिम्मेवारी बढ़ चली थी. रिश्ते-नाते के लोगों को तो जैसे काठ मार गया हो. उन्हें कहीं-कहीं सुनना पड़ता- अमुक लड़की जिसने हाल ही में मेरे ऑफिस में ज्वाइन किया है. आपके रिश्ते में है न! उन लोगों की तो जैसे शामत आ जाती.
मुझे कोई मिल जाते- माँ को बोलना मिलने के लिए. मैंने माँ के पास चर्चा की- तुमसे कुछ लोग मिलना चाहते हैं. माँ ने भी इच्छा जताई- एक बार चलो मिल लेते हैं. मैं उन्हें उनकी बहन के घर लेकर गयी.
वहाँ और भी कुछ रिश्ते की औरतें थीं. एक झलक---
बेटी को नौकरी करने भेज दी हो वह भी इतने मर्दों के साथ. पता नहीं तुम्हें हो क्या गया है? जल्दी से लड़का देखकर शादी कर दो.
माँ का जवाब था- ऐसे कैसे शादी कर दूँ. थोडा ढंग का लड़का भी तो खोज कर दो. बोलते-बोलते वह भावुक हो गयी- और रोने लगी. बहुत झेला था उसने अबतक की ज़िन्दगी में, एक छोटी सी ख़ुशी मिली थी, उसे भी इन लोगों ने मातम में बदलने की कोशिश की. फिर भी वे लोग चुप नहीं हुए- रोने से क्या होने वाला है. ऐसे बेटी की शादी होती है. माँ की सिसकियों की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी, मैं दौड़ी कि आखिर हुआ क्या है. कितनी ख़ुशी-ख़ुशी आई थी, वो अपनी बहनों से मिलने. तरकश से कड़वे बोलों के तीर अभी भी निकलते जा रहे थे. मुझे पूरा माजरा समझ में आ गया. मैंने माँ को उठाया उसे चुप किया और पुछा- तुमने इन्हें कुछ कहा? उनका जवाब था- कुछ नहीं. मेरे त्योरियों पर बल पड़ गए. क्या यही दिन दिखाने मैं अपनी माँ को यहाँ लेकर आई थी? माँ कि आँखों में हमेशा तो आंसुओं का समंदर देखती आई हूँ. अब वे थोड़ा थमे हैं तो इन लोगों ने फिर उसे खोल दिया. सभी चुप थे. मुझे अपनी माँ के सम्मान का ख्याल आया इसीलिए मैंने उनके रिश्तेदारों से कुछ नहीं कहा और माँ को लेकर चुपचाप निकल पड़ी अपनी राह पर. मेरी अंतरात्मा से आवाज़ आ रही थी-  ये आंसू हैं अनमोल इन्हें संभाल कर रख. उस दिन के बाद रिश्तों की जकड़न अपने-आप ढीली होती गयी, और कब अलग होकर गिर पड़ी पता भी नहीं चला. जैसे कि यह प्यारा पौधा जो अभी-अभी अनचाहे बेलों की जकड़न से मुक्त हुआ है, झूम रहा है.

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