फ़रिश्ते


जाड़े की धूप बड़ी प्यारी होती है. दोपहर के खाने के बाद अगर थोड़ी सी धूप सेंक ली जाए तो क्या कहने. घर में रहने वालों के लिए तो यह आम बात है. लेकिन दफ्तरों या अन्य स्थानों पर काम करने वालों को ये मुश्किल से ही नसीब हो पाता है. 
इस मामले में हमलोग खुश-नसीब है कि हमारा दफ्तर एक खुले जगह में है और अपने सीनियर की अनुमति से हमलोग थोड़ी देर खुले में निकल कर जाड़े की धूप का आनंद लिया करते हैं. ऐसी ही दोपहर थी. मैं धूप में अभी-अभी ही खड़ी हुई थी. अचानक पास की दुकान में कुछ हलचल दिखी. पाँच-छः व्यक्तियों का एक झुण्ड एक कृश्काय देखने से ही फटेहाल लगने वाले व्यक्ति को घेरे हुए थे- "चलिए, निकालिए पैसे. अरे ओ कृष्णा. दस रसगुल्ले पांच जगह दो. हाँ पैसे इनसे ले लो." उस व्यक्ति ने बड़ी ही अनिच्छा से अपनी जेब में हाथ डालकर कुछ रूपए निकाले. अचानक ऐसा हुआ, एक सीधा-साधा एकदम सा शांत व्यक्तित्व का पदार्पण हुआ. जो पहले से एक समूह बैठा था वो शोर करने लगा, "भैया, भैया आइये आप भी रसगुल्ले खाइए. अरे कृष्णा भैया के लिए मिठाई लाओ जल्दी."
उस व्यक्ति ने पुछा "किसकी तरफ से मिठाई खिलाई जा रही है, और क्यों?" दूकान के मालिक ने जवाब दिया, "अरे भैया, आप मिठाई खाइए न. आम खाने से मतलब है न." लेकिन उस भले आदमी का सवाल पूर्ववत रहा, "पहले बताओ कारण क्या है. किस ख़ुशी में मिठाई खाई जा रही है, पहले मेरी बात का जवाब दो फिर और कोई बात करना.."
तभी एक दीन-हीन काया वाले प्राणी पर नज़र पड़ी जो दूकान के मालिक के पीछे खड़ा था. वह सामने आया और कहा, "हुज़ूर, मेरे ज़मीन में झंझट चल रहा था, उसे ठीक कराने के लिए कुछ कागज़ात दुरुस्त कराने आया था. इन बाबू लोगों ने रसगुल्ला खिलाने को कहा तो मैंने खिला दिया. आप भी मेरी तरफ से खा लीजिये."
उस सज्जन का चेहरा तमतमा उठा. उसने उन लोगों को कस कर लताड़ा, "क्या समझ रखा है इसे, थोडा तो आदमी को भी देखो. इतना परेशान लग रहा है और तुमलोग हो कि रसगुल्ले खाने चल पड़े." फिर उस सज्जन ने उस आदमी को सामने बुलाया और हाल-चाल पुछा. कहाँ रहते हो? क्या करते हो आदि-आदि. उसका जवाब था- "हुज़ूर, हम तो दुसरे के खेतों में काम करते हैं. अपना थोड़ा-सा खेत है, जिसमे झंझट चल रहा था. अब सब ठीक हो जाएगा तो कुछ राहत होगी. चार बच्चे हैं किसी तरह गुज़ारा होता है. बस अब हमें घर जाने की इज़ाज़त दे दीजिये. ५ मील चलकर जाना पड़ता है. देर होने पर गाड़ी नहीं मिलेगी, पैदल ही जाना होगा."
उस सज्जन ने पुछा- "कितने पैसे हैं आपके पास." जावाब मिला- "दो सौ रूपए थे, कुछ पैसे तो बाकी लोगों को मिठाई खिलाने में खर्च हो गए. सौ रूपए बचे हैं, अब घर के लिए राशन लेना है. किसी तरह काम चल जाएगा. आप चिंता न करें. ऐसा कभी-कभी ही होता है."
उस सज्जन आदमी ने आवाज दी- "कृष्णा, इधर आओ. इनके पैसे वापस करो, और वो पैसे मेरे खाते में जोड़ दो. और हाँ दस रसगुल्ले बांधकर इन्हें दे दो."
मैं यह सब दृश्य वहां धुप में खड़ी होकर देख रही थी. वह व्यक्ति उन महापुरुष को एकटक देखे जा रहा था. फिर एक धीमी सी आवाज़ आई, "आप जैसे ही लोग तो फ़रिश्ते हैं. अब चलते हैं हुज़ूर."
वास्तव में ऐसे लोग हमारे बीच ही रहते हैं. वे कोई ऊपर से नहीं आते. ये हम और आप ही हैं. आप भी किसी के लिए फ़रिश्ता हो सकते हैं. ऐसे लोगों को मेरा कोटिश: प्रणाम.

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