अनकही


रेलगाड़ी में पूरे रात सफर कर रहे हों तो सूर्योदय बड़ा ही अनोखा लगता है. ऐसी ही एक सुबह थी. मैं रेलवे प्लेटफार्म पर खड़ी इधर-उधर रिक्शे की ओर नज़र दौड़ा रही थी. कहीं एक भी रिक्शा नज़र नहीं आ रहा था. पास के लोगों से पूछने पर पता चला कि किसी कारण से आज रिक्शे की आवाजाही बंद है. अब समस्या थी कि गाँव कैसे पहुंचे? तभी एक ख्याल आया. उसी शहर में मेरे दूर के मामाजी रहा करते थे, सरकारी कर्मचारी थे. छोटा सा कार्यालय था, साथ ही लगा आवास भी, सोचा क्यों ना वहीँ चला जाए. बस क्या था, अपना बैग उठाया और चल पड़ी. बड़ा ही खूबसूरत फूलों और पौधों से सजा हुआ घर. एक खम्भे पर लिखा हुआ था, कार्यालय. और दुसरे पर आवास. यकीन नहीं हो रहा था कि ऑफिस का ऐसा खूबसूरत नज़ारा होगा. फाटक को धक्का देकर खोला और खुद सामान लेकर अन्दर दाखिल हुई. और सीढियाँ चढ़कर ऊपर जा पहुंची.
परिवार में ज्यादा लोग नहीं थे, एक बड़ी शांत सी कमसिन युवती निकली और कहा- "सामान यहीं रख दीजिये "और मेरी तरफ मुखातिब होकर- "आप इधर आ जाईये." मुझे उसका ये अपनापन भा गया और मैं चप्पल खोल कर उसके साथ चल दी. मैं उस युवती के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानती थी. बस इतना कि इस घर की कोई सदस्य होगी. उसने कहा- "अभी-अभी तो माँ बाबूजी बाहर गए हैं. मैं किवाड़ बंद करने ही वाली थी कि आपको फाटक के पास उतरते देखा. मैंने अंदाज़ा लगा लिया कि आप निशी जी हैं, माँ अक्सर आपके बारे में बातें किया करती है."
मुझे समझ आ गया कि ये मेरे इतिहास-भूगोल से अच्छी तरह परिचित है. मैं ही कुछ नहीं जानती, लेकिन एक बात का यकीन हो गया कि ये ज़रूर उस घर की बहु होगी. उस वक्त घर में कोई नहीं था, बस नीचे दरवाज़े के पास एक बूढ़े दरबान बैठे थे, जिन्होंने शायद मुझे इसीलिए नहीं रोका क्योंकि ऊपर बहूजी ने मुझे आते हुए देख लिया था.
"आप जल्दी से हाथ-मुँह धोकर कुछ खा लीजिये." बड़े ही प्रेम से उस ने खाना परोसा और मेरी तरफ बढ़ा दिया. मैं इतनी खुदगर्ज़ कैसे हो सकती थी, मैंने उन्हें भी साथ खाने के लिए आग्रह किया. उनका जवाब था- "मैं अभी नहीं खा सकती. बहुत सारे काम पड़े हुए हैं. माँ-बाबूजी लौटकर आयेंगे, गंदगी देखेंगे तो बूरा मान जायेंगे." मैंने दुराग्रह किया- "सारे काम एक तरफ रहने दीजिये और आप मेरे साथ बैठती हैं या नहीं. अन्यथा मैं नहीं खाऊँगी." वह ऐसे हठ को टाल नहीं पायी और खाने बैठ गयी. खाते-खाते एकदम से चुप हो गयीं. चेहरा एकदम से उदास हो गया. मैं उनके चेहरे के हाव-भाव पढ़ रही थी. ऐसा लग रहा था मानो काफी उथल-पुथल मच गयी हो. खैर हमारा भोजन समाप्त हुआ. वह तेजी से उठी और बर्तन समेटने लगी. मैंने उनका हाथ पकड़ा और अपने बगल में बिठाया और पुछा- "क्या हुआ? आप काफी परेशान लग रहीं हैं?" वह बोली- "कुछ नहीं. कुछ भी तो नहीं बस ऐसे ही अपने मम्मी-पापा की याद आ गयी. वे बचपन में ही मुझे अकेला छोड़कर इस दुनिया से विदा हो गए थे. आज आपका अपनापन देखकर यादें ताज़ा हो गयीं. कोई नहीं है जो मुझसे मेरे दिल की बात पूछे." वह फट पड़ी- "माँ बीमार थीं, कुछ-कुछ याद है. वह चल बसीं. पापा बहुत प्यार करते थे लेकिन अचानक वो भी चल बसे. मैं सबों के लिए बोझ हो गयी. कोई रिश्तेदार ले जाते. कोई कुछ दिन रखता फिर किसी और के पास छोड़ आता, फिर कोई और. सभी खूब काम करवाते.एक दिन बुआ आयीं, उन्होंने हमेशा के लिए मुझे अपने घर में आश्रय दिया. मैं खूब काम करती थी इसीलिए वो मुझसे हमेशा खुश रहतीं. उनके घर का सारा जिम्मा मैंने उठा लिया था. वहीं एक दिन माँ- बाबूजी किसी काम से आये थे. मेरे काम करने का अंदाज़ उन्हें भा गया. फिर उन्होंने बुआ से मेरे बारे में पुछा. बुआ ने बताया- बिन माँ-बाप की बच्ची है. मैंने अपने यहाँ आश्रय दिया. कोई चाचा-चाची तो पूछते नहीं न ही कभी एक कपडा दिया है. बस इसकी शादी की चिंता है. कहाँ से इतना दहेज़ लाऊं. अपनी बेटी की शादी तो किसी तरह जोड़-तोड़ के करे दी. यही चिंता खाए जा रही है.
फिर माँ-बाबूजी ने कहा, ठीक है हम देखेंगे. उनके जाने के एक महीने बाद उनकी चिट्ठी आई. पता नहीं क्या था उसमें मुझे नहीं मालूम. तबसे मेरी बुआ मुझे अच्छे से काम करने का मार्गदर्शन करने लगी. काम सलीके से करो तुम्हें अच्छे और बड़े घर में ब्याहूँगी. और फिर बाद में पता चला, माँ-बाबूजी ने खबर भिजवाई थी- वह जो आपकी बच्ची? जिस तरह उसने आपके घर की पूरी ज़िम्मेदारी उठायी है उसी तरह मेरे घर की भी पूरी ज़िम्मेदारी उठा ले तो मैं बिना दहेज़ के उसे अपनी बहु बनाने को तैयार हूँ. बस फिर क्या था मैं इस घर में आ गयी. तबसे ज़िम्मेदारी उठा ही रही हूँ. सुबह से रात तक लगी रहती हूँ, पूरे घर की ज़िम्मेदारी पूरी करने में और माँ-बाबूजी की सेवा करने में.."
मैंने बीच में ही टोक दिया- "भैया कहाँ हैं?"
बोली- "वो तो घर (गाँव) पर हैं. कभी-कभी ही आते हैं. बहुत चिंता होती है, कैसे खाते होंगें कैसे रहते होंगे? कभी-कभी माँ मुझे कुछ दिनों के लिए गाँव भेज देती है. जाने लगती हूँ तो कहती है- बहु, वहाँ का घर भी देख लो. पता नहीं मुन्ना ने कबाड़ बना कर रखा होगा."
इन मुन्ना महोदय को मैं जानती थी. कुछ ख़ास पढ़े-लिखे नहीं थे. कोई नौकरी होने से रही- पिता ने छोटी सी दूकान खुलवा दी थी. लेकिन मुन्ना का मन दूकान में लगता नहीं था. चार दिन दूकान खुलती थी, और छब्बीस दिन बंद रहती थी. पिता का सामना करने से भी कतराते थे, सो उनके लिए वही ठीक था, अपने पुश्तैनी मकान पर ठाट से पड़े रहें.
आगे उसने बताया, "क्या कहूं दीदी, जब वे यहाँ रहते हैं तो हमेशा बाबूजी गुस्से में रहते हैं. उन्हें डांटते रहते हैं. उसी डांट-फटकार की वजह से वे यहाँ आने से कतराते हैं. मैं क्या करूँ? दीदी, मेरी ज़िन्दगी तो मेरे काम से है. कहीं भी रहूँ, बस काम-काम और घर की ज़िम्मेदारी... सब चुपचाप देखती रहती हूँ मुझे तो कुछ बोलते डर लगता है. पता नहीं कैसे आपके सामने इतनी सारी बातें बोल गयी. दीदी, किसी से नहीं कहना." उसने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए और कहा, "आपसे इतना अपनापन मिला कि मैं रौ में बोलती चली गयी. आज तक मैंने ये बातें किसी से नहीं कही हैं."
मैंने धीरे से अपने हाथ छुड़ाए, दोनों हाथों को उनके गालों पर रखा, वे भीगे हुए थे. मैंने कहा, "भाभी, बह जाने दो इन्हें. पूरी तरह. जिस तरह अपना कर्त्तव्य निभा रही हो, उपरवाला देख रहा है. वह कुछ न कुछ अवश्य करेगा." और इस तरह मैंने उन्हें दिलासा दिया. मेरे विदा लेने का वक्त आ गया था. और मैं रुखसत हुई. मैं फाटक के पास पहुंची और एक बार ऊपर देखा. वह बहुत शांत लग रही थी. जैसे तूफ़ान के हलचल के बाद की ख़ामोशी. अब मैं ने अपना बैग उठाया और उनकी 'अनकही' को साथ ले अपने गंतव्य की ओर चल पड़ी. 

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