बदले से लोग


यह ज़िन्दगी एक नदी की धारा सदृश है, चलती रहती है. इसे कोई रोक नहीं सकता. यदि रोकने की कोशिश हुई तो ये शायद रोकने वाले को ही निगल जाए, या फिर ऐसा मोड़ ले कि रोकने वाले को कुछ दिखाई न दे. 
हमारी ज़िन्दगी के कितने पड़ाव होते हैं, कुछ अविस्मरणीय हो जाते हैं. एक पड़ाव – वह नितांत अकेली चली जा रही थी. जीवन की राहों में चलते हुए उसने बहुत सारे थपेड़े खाए थे. इसीलिए किसी से घुलने-मिलने में एक हिचक सी होने लगी थी, क्योंकि किसी से ज्यादा करीब होने पर बहुत सारी बातें बतानी पड़ती है और यदि ऐसे में अगर ज़िन्दगी किसी घुमावदार रास्ते के आगे खड़ी हो तो बयां करना और भी कष्टदायक हो जाता है. अपने कार्यालय में वो काफी सतर्क रहा करती थी. हँसना-बोलना बड़ा ही नपा-तुला हुआ करता था. सारे कर्मचारी (एक को छोड़कर) बड़ी ही संदेह भरी नज़रों से देखा करते थे. बातों ही बातों में ऐसी बातें कह दिया करते थे जिससे हुमा को लगता था मानो किसी ने उसकी दुखती रग को छेड़ दिया हो. वह और भी सतर्क हो जाती और रिज़र्व रहने की कोशिश करने लगती. 

ऐसे ही एक दिन कर्मचारियों की उपस्थिति काफी कम थी. उस दिन बारिश काफी हुई थी. मौसम बड़ा ही असहज था. लेकिन वह तो कभी भी अनुपस्थित नहीं रहती थी, प्रतिकूल मौसम में होने पर तो वो समय की और ज्यादा पाबंद हो जाती. एक कर्मचारी जो काफी संजीदे थे, अचानक उसके पास आये और पूछ बैठे, “आप इतनी चुप-चुप क्यों रहतीं हैं? माना कि कुछ घरेलु समस्याएँ हैं, यह तो सबके साथ होतीं हैं. किसी के साथ कम, किसी के साथ ज्यादा. हर परिवार के अन्दर कुछ न कुछ ऊँचा नीचा रहता ही है. आप अपने-आपको अकेला न समझें. कम से कम यह कार्यलय वाला समय तो सबके साथ अच्छे से बितायें. अगर कभी कोई दिक्कत आये तो मुझसे कह सकती हैं. एक सहकर्मी होने के नाते मुझसे जो हो पायेगा मैं करूँगा.” 
उनके बात करने का ढंग काफी संतुलित था. यही वजह थी कि वह धीरे-धीरे काफी सामान्य हो गयी और उन सहकर्मी से काफी बातचीत होने लगी, यहाँ तक कि उनके परिवार के सदस्यों से भी नज़दीकी बढ़ती गयी. यूँ कहें कि उनका रिश्ता पारिवारिक हो गया. परिवार के हर सुख-दुःख में वे सहभागी रहे. शादी-ब्याह, बच्चों के जन्म, पढ़ाई-लिखाई सारी बातों पर चर्चा होती. उनके बेटे की शादी तो दुसरे शहर में हुई, लेकिन प्रीति भोज में वह पूरे जोश के साथ शामिल हुई और खूब लुत्फ़ उठाया जैसे किसी अपने की शादी में होता है. हो सकता कि यह एकतरफा हो मगर देखने से ऐसा नहीं लगा. 
खैर, ये सब ख़त्म हो गया. तबादले हो गए. दूरियाँ बढ़ गयीं लेकिन मन की दूरियाँ नहीं बढ़ी थीं. दूरभाष इसका गवाह था. समय-समय पर बातें हो जाया करती थीं और पारिवारिक घटनाओं का ज़िक्र भी होता ही रहता था. अचानक एक दिन वे सभीलोक बेटी की शादी का निमंत्रण लेकर पहुंचे. काफी बातें हुईं, पता चला कि बेटा-बहु तो अमेरिका प्रवासी हो चले हैं. बड़ी मुश्किल से शादी में आ रहे हैं. बातों-बातों में पोती की भी चर्चा हो चली. जैसा कि अक्सर फ़ोन पर हुआ करता था. हुमा के मन में उत्सुक्ता जागी, “चलो, बड़ा अच्छा मौका है, ज़रा बहु-बेटे को मिलूंगी.” एक अलग ढंग का उत्साह था. उसने अपनी इच्छा जताई कि वह उनकी बेटी की शादी से कुछ दिन पहले ही मिलना चाहती है ताकि अच्छे से बातचीत हो सके. उन्होंने हाँ-हाँ कह कर विदा ली. हुमा बड़ी ही उत्सुकता से उस दिन का इंतज़ार करने लगी. जब उसने दूरभाष पर संपर्क किया, तो उधर से कुछ अजीब सी प्रतिक्रिया मिली. शायद यह उसके उत्साह पर कुठाराघात था लेकिन, वह समझ नहीं पाई. खैर, बड़े ही उत्साह से वह शादी में शामिल होने पहुंची. प्रवेश द्वार पर ही वे मिल गए. अच्छा ही रहा, अब वह भाभीजी को ढूंढने लगी. बेटी की शादी है इधर-उधर व्यस्त होंगी. एक बार मिल तो लूँ, ज़रा बिटिया से भी मिल लुंगी, जैसा अबतक पारंपरिक रूप से होता आया है. अचानक वे सामने दिखीं- भाभीजी, एक बार निशि बिटिया से मिलना चाहती थी. भाभीजी ने बेहद रूखे अंदाज़ में कहा- चले जाइए, अमुक कमरा, अमुक फ्लोर पर है. क्षण भर को तो उसे समझ में नहीं आया, क्या करें, कहाँ जाएँ? जैसे सारे मेहमान उपहार देकर, खाकर चले जाते हैं वो भी क्यूँ न वैसा ही कर पाई? बहुत बड़ा झटका था, वह उबरने की कोशिश कर रही थी कि एक पूर्व परिचित महिला सामने आ खड़ी हुईं. उनसे बात करके वातावरण को सहज बनाने में बड़ी ही सुविधा हुई. उन्होंने ने भी बिटिया से मिलने की इच्छा जाहिर की. हुमा को पता मालूम था इसीलिए दोनों साथ-साथ वहाँ पहुंची और बेटी को मिलकर उसे बधाई दी. अब उसे डर लग रहा था पता नहीं कैसी प्रतिक्रिया हो. किसी तरह औपचारिकता पूरी कर वह वापस लौटी और अपने परिवार के सदस्यों के साथ थोड़ी सहज महसूस हुई. उसने अपनी मंशा ज़ाहिर की ‘चलिए, अब घर चलें.’ आपस में सहमति बनी- थोड़ा कुछ खा लेते हैं, औपचारिकता तो पूरी कर लेनी चाहिए. बस क्या था, वे डाइनिंग हॉल में पहुंचे और अपनी-अपनी प्लेट लेकर आगे बढ़े ही थे कि पूर्व परिचित लोगों का समूह मिल गया. एकदम वही मुस्कान, व्यंग्य, कटाक्ष सारे हथियारों से लैस. रत्ती भर का भी बदलाव नहीं, जबकि फासला लगभग पंद्रह वर्षों का रहा होगा. यह पंद्रह मिनट का साथ पंद्रह सालों के फासले को पाट गया. कितनी खट्टी-मीठी यादें उन्होंने एक दुसरे से साझा की और एक दुसरे से फिर मिलने का वादा करते हुए विदा ली. 
रास्ते भर वह उधेड़बुन में रही. बेटी ने हिलाया, “क्यों मम्मी, तुम्हें क्या हो गया है? क्यों बेकार सोच में पड़ी है? मैं समझ सकती हूँ तुम्हारी तकलीफ,.अरे, जाने भी दो. ये बदले-बदले से लोग हैं.” और उसकी तंद्रा टूटी. सही है, यही सच है, ये उन बदले से लोगों में से है जो आनेवाले समय के साथ चलते हैं और बीते दिन, पुराने लोगों को छोड़ते चले जाते हैं. सही अर्थों में यही तो विकास की परिणति है. बीते ताहि बिसारिये – वह अपनेआप को तसल्ली दे रही थी. क्या वह ऐसा कर पाएगी?

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