झूला


बैसाख की एक तपती दुपहरी. एक महिला अपनी रसोई के दैनिक क्रिया-कलाप निपटा कर थोड़ा आराम करने के मूड में थी. बच्चे स्कूल में थे, छोटा बच्चा सो रहा था. इससे बढ़िया वक्त क्या हो सकता था आराम फरमाने का. अचानक एक शिशु के क्रंदन से उसकी तन्द्रा टूटी. आवाज़ घर के बाहर से आ रही थी. उसने उठकर इधर-उधर नज़र दौड़ाई लेकिन कुछ नज़र नहीं आया. वह आवाज़ बंद नहीं हो रही थी, उसका मन विचलित हो उठा. किवाड़ खोलकर बाहर निकली तो कलेजा मुँह को आ गया. एक छोटा बच्चा, जिसने अभी चलना भी नहीं सीखा था गुड़कता हुआ रोड पर पहुँच गया था. कोलतार की सड़क गर्मी के महीने में आग की तरह तपने लगती है. गर्मी के कारण उस शिशु के कोमल हाथ जलने लगे थे. वह एक हाथ उठाता, सड़क की गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाने पर फिर दूसरा हाथ उठाता. उसका क्रंदन भी बढ़ता जा रहा था. महिला दौड़ी और उस बच्चे को गोद में उठा लिया. अपने घर पहुँच कर उसने बच्चे को पानी पिलाया, उसके हाथ-पैर पर मलहम लगाया. कुछ देर बाद उस बच्चे को नींद आ गयी और वह निश्चिंत हो सो गया. 

वह उनके पड़ोस में रहने वाली शिक्षिका (जो कि उस वक्त काम पर गयी हुई था) का बच्चा था. उस बच्चे की ज़िम्मेदारी जिसे सौंपी गयी थी, वह दरवाज़ा खुला छोड़कर अपने दैनिक क्रियाकलाप में कहीं मशगूल था. उसे रत्तीभर भी भान नहीं था कि बच्चा खुले किवाड़ से बाहर भी जा सकता है. उस शिक्षिका के लौटने का समय निकट आ रहा था, तब उस व्यक्ति को बच्चे की याद आई. वो भागता हुआ घर पहुंचा तो देखा की दरवाज़ा खुला है और बच्चा घर में नहीं है. उसने घर में हर जगह ढूंढा पर बच्चा नहीं मिला. तब उसके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकने लगी. फिर उसने आस-पास के घरों में पूछना शुरू किया. उसने महिला का दरवाज़ा खटखटाया, “काकी, काकी, गुड्डू नहीं मिल रहा है. आपने कहीं देखा है क्या?” महिला का जवाब था, “हाँ, हाँ, मैंने तो उसे सड़क पर गुड़कते हुए देखा था.” 
लड़का बेसब्र हो गया, “कहाँ? किधर? किस ओर गया था? मेरे साथ चलकर उसे ढूंढने में मदद कर दीजिये.” एक ही साँस में वो ये सब कह गया और उसकी धड़कन तेज हो गयी. 
उस महिला ने लड़के का कन्धा पकड़ते हुए उसे शांत किया और गुड्डू के पास ले गयी. बोली- “एक बच्चे को उस स्थिति में देखकर कोई माँ कैसे छोड़ सकती है? वह सो रहा है, थोड़ी देर में जाग जायेगा, तब ले जाना.” उस लड़के ने विनती की कि दीदी जी को मत बताईयेगा. महिला ने कहा- “बच्चे की माँ को नहीं बताऊँ? क्या किया है तूने? कोई वस्तु है? तू इतना गैर ज़िम्मेदार कैसे हो गया? अभी बच्चे को कुछ हो जाता तो? क्या तू उनका बेटा कहीं से ला सकता था? मुझे बताना तो पड़ेगा ही, ताकि भविष्य में ऐसा कभी न हो. उन्हें सावधान करना तो मेरा कर्त्तव्य है.” 
जब वह शिक्षिका स्कूल से लौटी और उन्हें बताया गया तो उन्होंने सिर पीट लिया. “मेरी सासू माँ घर में हैं लेकिन उम्र ज्यादा होने के कारण वो बच्चे पर ज्यादा निगरानी नहीं रख पातीं, इसीलिए इस लड़के को साथ रखा था, लेकिन मुझे क्या मालूम था कि ये लड़का इतना लापरवाह निकलेगा. आज आपने न देखा होता तो पता नहीं आज मेरा बेटा किस स्थिति में होता. आपका ऋण मैं जीवन भर नहीं चूका पाऊँगी.” महिला ने उस शिक्षिका को ढाढस बंधाया, “जो हो गया सो हो गया अब ऐसा दुबारा न हो इसी का ध्यान रखना है. मैंने कुछ नहीं किया, सिर्फ एक पड़ोसी का धर्म निभाया है.” 
वैसे तो पहले से ही उन लोगों के बीच अच्छी बनती थी लेकिन इस घटना ने उन दोनों परिवारों को काफी नजदीक ला दिया. उनकी और दो बेटियाँ थी जो ऊँचे क्लास में पढ़ती थी. दोनों परिवार के बच्चे साथ खेला करते, शाम को साथ-साथ घूमना. शिक्षिका का परिवार काफी समृद्ध था. उनके रहन-सहन, परिवार आदि का दुसरे परिवार से तुलना किया जाता तो वो कहीं नहीं ठहरते थे. 
दोनों में अच्छा सामंजस्य होने का रहस्य उन बच्चों में छुपा था जो हमेशा अपनी हद में रहते थे. माता-पिता का संस्कार कह लीजिये. खाने-पीने का साझा कार्यक्रम नहीं था, बस घूमना-फिरना, बात करना, इतने तक ही सीमित था. शिक्षिका के पति कहीं बाहर दुसरे शहर में अच्छे पद पर कार्यरत थे. कुछ दिनों बाद उनका तबादला उसी शहर में हो गया और फिर परिवार बड़ा ही संतुलित हो गया. बच्चे भी बड़े खुश रहने लगे. धीरे-धीरे कुछ परिवर्तन भी आने लगे. घर के चारों तरफ बड़ा बाड़ा लगाया गया. उसमें साग-सब्जी प्रचुर लगाईं गयी. खेलने की जगह कुछ तंग हो गयी. झूला लगाने की योजना बनी. फिर क्या था, तुरंत ही झूले की व्यवस्था की गयी. अगले ही दिन झूला लग गया. आस-पास के बच्चों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया वो झूला. वे आसपास मंडराते रहते, एक बार झूला झूलने का मौका मिले. थोड़ा बहुत मौका सब को मिल ही जाता था. दो बहनों में भाई गुड्डू बड़ा ही नटखट था, शैतानी कुछ ज्यादा ही थी. कुछ भी गलती होती तो बहनों पर इल्जाम लगा देना उसका शगल था. घर के सभी लोग इससे वाकिफ थे और उसकी बातों को नज़रअंदाज कर देते थे. झूले पर भी एक तरह से उसका वर्चस्व था. उसका मन भर जाता तभी वह दुसरे को झूलने देता या फिर उसकी मर्ज़ी होती तो वो किसी को भी झूले पर बिठा देता. पड़ोसी के बच्चे पहले जिनका साथ काफी रहता था वह अब कम हो गया था. उनके बच्चों को भी झूलने की लालसा होती तो कभी-कभार वहां जाते. घर के गार्जियन हो तो वे कुछ ज्यादा ही तरफदारी करने लगते, “गुड्डू ज़रा छोटी को भी झूलने दो.” गुड्डू बड़े बेमन से झूले से उतरता और तुरंत ही उसे हटा देता. इसी तरह समय अपनी रफ़्तार से चल रहा था. 
एक दिन गुड्डू झूला झूल रहा था. वहीं पास का एक लड़का उसे झूला रहा था, “एक, दो, तीन... बीस. अब उतरो हमें झूलने दो.” लेकिन गुड्डू उतरना नहीं चाहता था. वह लड़का झूले को पकडे हुए था, इसी क्रम में उसका हाथ छूटा और गुड्डू गिर पड़ा. वह लड़का वहां से नौ-दो ग्यारह हो गया. नीचे जमीन पर रखी ईट से गुड्डू का सिर टकराया और उसके सिर से खून बहने लगा. वहीँ पास में खड़ी पड़ोसन की लड़की छोटी उसे उठाने की कोशिश करने लगी, “उठो, उठो. क्या हुआ गुड्डू?” पर वह गुड्डू को उठा नहीं पाई. गुड्डू का क्रंदन बढ़ता ही गया. उसका रोना सुनकर घर से गुड्डू का नौकर दौड़ता हुआ आया और गुड्डू को गोद में उठाया. तब तक में गुड्डू की माँ भी दौड़ती हुई बाहर आई. खून बहता देखकर परेशान हो उठी और बोली, “किसने मारा है?” गुड्डू दूसरों पर दोषारोपण की आदत से मजबूर था, उसने जवाब दिया, “छोटी ने मारा.” 
गुड्डू की माँ ने अत्यंत ही क्रूर दृष्टी डाली छोटी पर. नौकर ने स्थिति भांप ली थी लेकिन वो चुप रह गया. बच्ची बड़ी ही सीधी थी, चुपचाप वहीँ खड़ी रही. शोरगुल की आवाज़ सुनकर उसकी बड़ी बहन बाहर आई. उसने देखा शिक्षिका उसकी बहन को बड़े ही अजीब ढंग से घूर रही थी. शिक्षिका ने ईट का टुकड़ा उठाया और फेंककर कहा, “ये देखो, तुम्हारी बहन की करतूत. मेरे बच्चे को जान से मारने पर तुली हुई है.” 
छोटी की बड़ी बहन छोटी को अपने साथ घर ले गयी और अन्दर जाकर पुछा, “तुमने कुछ किया है, छोटी?” 
छोटी ने रोते-रोते जवाब दिया, “दीदी, मैंने कुछ भी नहीं किया. मैं तो बस वहाँ खड़ी थी. वो ऊँचे सीढ़ी वाले घर का आशु है न, वही झूला रहा था और गुड्डू गिर पड़ा. उसने उठाया भी नहीं वहां से भाग गया. मैं तो गुड्डू को उठा रही थी. मुझसे नहीं हुआ फिर किशोर भैया (शिक्षिका के नौकर) ने उसे उठाया. फिर आंटी मुझे ही डांटने लगी. मैंने तो कुछ भी नहीं किया.” 
छोटी की बहन को तसल्ली हो गयी कि छोटी की कोई गलती नहीं है. छोटी की माँ बाहर आई और कहा, “मेरी बेटी गुड्डू को नहीं मार सकती, और वो भी ईट से? ऐसा नहीं हो सकता, मेरा मन नहीं मानता.” शिक्षिका का कहना था, “इतना खून बह रहा है. अपने-आप हो गया क्या?” गुड्डू के पिता ने चुप रहने का इशारा किया और सभी अपने घर चले गए. 
खैर, बच्चे को डॉक्टर के पास ले जाया गया. वहाँ भी यही पता चला कि बच्चे के सिर पर चोट नीचे गिरने की वजह से लगी है. बच्चा ठीक हो गया. स्थिति फिर सामान्य हो गयी. बस एक बात का परिवर्तन हुआ, छोटी और उसकी बहन ने उनके घर क्या, उनके बाड़े के पास भी फटकना बंद कर दिया. छोटा भाई भी किसी चीज़ में शामिल होने के लायक नहीं, दूर से ही बाड़े के पास खड़ा देखता था. उसे भी समझ आ गया था कि उस घर में नहीं जाना है. नए बच्चे वहाँ आते लेकिन वो बात नहीं थी. वे बच्चे भी झूले का पूरी तरह मज़ा नहीं ले पाते थे. गुड्डू की चोट की असलियत उन्हें भी पता चल चुकी थी. लेकिन अब क्या हो सकता था? सम्पन्नता और शक्ति के आगे इंसानियत और विनम्रता हार चुकी थी. अक्सर हम ऐसा ही देखते हैं, हमारे आस-पास ऐसी कितनी ही घटनाएं होती रहती हैं. शायद ही कोई इनमें मध्यस्था करे. 
उस घटना को काफी वक्त बीत चूका था. दूरियाँ वैसी ही बनी हुई थी. यहाँ तक कि बातचीत भी बंद थी. अगस्त का महीना था. यह समय ऐसे भी बच्चों की तबीयत खराब होने के लिए जाना जाता है. छोटी और उसके भाई-बहनों को बुखार हो गया. माँ भी चपेट में आ गयी. किसी तरह बार्ली-साबूदाना की व्यवस्था की गयी. बच्चों की माँ भी बीमारी की वजह से कोई काम नहीं कर पाती. पिता अपनी ड्यूटी करने जाते और कुछ खाने-पीने की सामग्री ले आते. चार-पांच दिनों तक उनके घर के खिड़की-दरवाज़े बंद रहे. शाम का वक्त था, दरवाज़े पर दस्तक हुई. माँ किसी तरह उठी और थोड़े संशय के साथ दरवाज़े की ओर बढीं. पता नहीं कौन है, खोलें या न खोलें? तभी दरवाज़े के उस पार से आवाज़ आई, “छोटी की माँ, खोलिए मैं हूँ.” माँ ने धीरे से दरवाज़ा खोला. सामने वही शिक्षिका खड़ी थीं. उसने सवाल किया, “आपका दरवाज़ा कई दिनों से बंद दिखा तो मुझे चिंता हुई. स्कूल के मास्टर साब से पूछा तो पता चला, आप सभी लोग बीमार हैं. मैं आपकी पडोसी हूँ और आपने मुझसे कुछ नहीं कहा?” 
माँ ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए कहा, “मैं आपसे क्या कहती? ईश्वर जिस स्थिति में रखता है, उसी में खुश रहना चाहिए. यही सोचकर मैं किसी से कुछ नहीं कहती. वही तो हर किसी का पालनहार है. उसके आगे किसकी चली है?” 
जवाब मिला, “मुझे और शर्मिंदा मत कीजिये. मुझे अपनी गलती का एहसास है.” वह साथ में थर्मस लेकर आई थी. उसने मेज पर से कप उठाया और चाय उड़ेलकर माँ के हाथ में थमाया और खुद भी चाय पीने लगी. ऐसा लग रहा था मानो परिवारों के बीच का मनमुटाव चाय की भाप के साथ-साथ उड़ रहे हों.  

Comments

  1. वक़्त की धार मन के मेल को ढो देती है! मर्मस्पर्शी कथा.

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    1. आपने कहानी को पढ़ा और त्वरित प्रतिक्रिया दी. मेरा धन्यवाद स्वीकारें.

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  2. और मन के मैल को धो भी देती है.....

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