सलीका
आखिर हमारी गाड़ी एक बड़े से फाटक के आगे रुकी। दूरभाष पर बात कर ये तसल्ली कर ली गयी कि यही वह जगह है. फिर गार्ड ने अपनी रस्म अदायगी कर फाटक के दरवाजे खोल दिए और हमारी गाड़ी (कार) एक सुन्दर से अहाते में प्रवेश कर गयी वहां का वातावरण काफी शांत था, चारों तरफ गगन चुम्बी अपार्टमेंट थे. बीच में छोटी सी खाली जगह को पार्कनुमा शकल दी गयी थी. उसमे एक झूला, दो बेंच (सीमेंट निर्मित) और एक छोटा सा चबूतरा बना हुआ था. पार्क चारों ओर लोहे के बाड़े से घिरा हुआ था सटे हुए रोड थे अपने अपने घरों की बालकनी से लोग उस छोटे से पार्क पर नज़र रख सामने थे. शायद यही सोचकर ऐसा बनाया गया हो ताकि अपने खेलते बच्चों पर लोग ऊपर से नज़र रख सकें।
समय यही कोई पौने चार बजे के बीच रहा होगा। इसलिए काफी सन्नाटा था. हमारी गाड़ी रोड के एक किनारे पर खड़ी थी. वहां से वह पार्क दिख रहा था. गाड़ी से उतरकर मैंने इधर उधर नज़रें दौड़ाई तो मुझे उस पार्क की बेंच पर एक लड़की दिखाई दी जो अपनी एक टांग दूसरे के ऊपर चढ़ाकर बैठी हुई थी. उसकी गोद में एक छोटी सी किताब थी. शायद वो कोई अंग्रेज़ी उपन्यास पढ़ रही थी. वह बेखबर उसमे डूबी हुई थी. हमलोग पांच सदस्य थे जिसमें एक मेरी छोटी बच्ची थी. एक मेरी माताजी (सासु माँ) जो कि चलने में असमर्थ थीं. उनकी दैनिक प्रक्रिया दूसरे की मदद से ही संभव होती थी. करीब 15-20 मिनट बाद मेरी बड़ी ननद जी उनके बेटे के साथ नीचे आयीं। माँ-बेटी का मिलाप हुआ जो कि काफी भावुकता भरा होता ही. इस वजह से मैं गाड़ी से बाहर ही खड़ी इधर-उधर ध्यान लगाने की कोशिश कर रही थी. एक बात की तारीफ़ कर दूँ कि हमें उस शहर में डॉक्टरी सलाह के लिए गए थे. वजह माताजी की सेहत में बेहतरी के लिए थी.
पहले घर का मतलब होता था घर उनका रवि बाबू का, सिन्हा जी का, मिश्रा जी का, आज घर का मतलब होता है पांचवी मंज़िल बारहवाँ फ्लैट।
थोड़ी देर में उनकी बहु नीचे आयीं प्रणाम पाति के बाद ऊपर चलने की ज़िद की. उनका फ्लैट चौथे माल्हे पर था. वहां लिफ्ट की सुविधा नहीं थी. उधर बेटी भी माँ से ऊपर चलने को कह रही थी जो एक बेटी के लिए स्वाभाविक भी था. अब समस्या यह थी कि उन्हें ऊपर तक ले जाया जाए और फिर तुरंत नीचे लाया जाए. यह व्यवहारिक नहीं लग रहा था. उनकी परेशानी बढ़ जाने की संभावना थी. हाय री किस्मत! यह माँ बेटी का कैसा मिलन है. बेटी की इच्छा थी कि माँ को अपना घर दिखाती, कुछ सेवा सुश्रूषा करती। समयाभाव में यह संभव न हो पाया। थोड़ी देर में बहु मेरे पास आयी, "मामी आप ही चलिए, कुछ खा पी कर आ जाना, थोड़ा आराम भी कर लेना।" मैं कुछ सोचती माता जी को कुछ ज़रूरत आन पड़ी. उन्होंने मुझे बुलाया और फिर मैं इधर-उधर हो गयी. अब हमारे विदा लेने का समय हो रहा था. लेकिन उन लोगों की बातचीत ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी. मैं बच्ची को गोद में लिए काफी देर से खड़ी थी, थकावट महसूस होने लगी. इधर-उधर नज़र दौड़ा रही थी कि ठौर मिले जहाँ बैठा जा सके. नीचे के फ्लैट में आगे थोड़ा सा अहाता दिखा जो बंद था. कहते है न कि चाहने से कुछ भी मिल जाता है. मुझे पास में एक जगह दिखी। एक नाला था जो सूखा हुआ था, शायद बरसाती नाला होगा। उसमे दोनों ओर घास उगे हुए थे. बस क्या था मैं वही जाकर बैठ गयी. बड़े ही सुकून से पैर नीचे नाले में लटका का बैठ गयी. बेटी को भी संभालने में कोई दिक्कत नहीं हुई. मैं सोच ही रही थी कि मैंने ये पहले क्यों नहीं सोचा कि अचानक तेज आवाज़ सुनाई दी- "मामी! मामी! आप ये कहाँ बैठ गयीं? यह कोई बैठने की जगह है? लोग क्या कहेंगे? यहाँ सभी हाई स्टैंडर्ड लोग रहते हैं. कल हमें बोलेंगे तुम्हारे यहाँ कैसे गेस्ट (मेहमान) आते हैं जिन्हे बैठें का सलीका नहीं पता."
मैं चुप चाप उसकी बेतुकी बातें सुनती रही और फिर धीरे से उठी. मुझे समझ नहीं आ रहा था मैं क्या जवाब दूँ. मैं चुप चाप उसके साथ चल दी जहां सभी लोग थे. सब गप-शप में तल्लीन थे, पर मेरा मन उन गगनचुम्बी इमारतों की ओर उनमें रहने वाले लोगों के इर्द-गिर्द घूम रहा था. क्या यह दूसरी दुनिया है? यहाँ हर काम सोच समझकर तरीके से किया जाता है. हँसना बोलना चलना बैठना भी तरीके से होता है. फिर वह कौन सा संसार है जहाँ धुल-धूसरित बच्चे दौड़ते हुए माँ की गोद में आकर खिलखिलाते हैं? सब्ज़ी बेचनेवाली औरतें बच्चे को संभालती हुई खरीद-बिक्री का काम करती हैं. बच्चा रोता है तो बीच में घुमाकर उसे स्तनपान भी करातीं हैं. ये और बात है कि कुछ शोहदों की नज़र सब्ज़ी खरीदने पर कम और माँ-बच्चे के नैसर्गिक मिलाप की ओर ज्यादा होती है पर वे डरती नहीं, साहस के साथ अपने परिवार और नवजात बच्चे का तालमेल बनाये रखती हैं. यही हमारा असली भारत है.
गाड़ी का हॉर्न बजा, हमारे वापस जाने का समय हो चला था. सबकुछ पीछे छूटता चला गया. लेकिन उस नर्म घास के साथ बिताये वे पल मेरे लिए बेहतरीन थे. उस सुखद एहसास को आज भी अपनी स्मृति पन्नों में संजोये हूँ.
थोड़ी देर में उनकी बहु नीचे आयीं प्रणाम पाति के बाद ऊपर चलने की ज़िद की. उनका फ्लैट चौथे माल्हे पर था. वहां लिफ्ट की सुविधा नहीं थी. उधर बेटी भी माँ से ऊपर चलने को कह रही थी जो एक बेटी के लिए स्वाभाविक भी था. अब समस्या यह थी कि उन्हें ऊपर तक ले जाया जाए और फिर तुरंत नीचे लाया जाए. यह व्यवहारिक नहीं लग रहा था. उनकी परेशानी बढ़ जाने की संभावना थी. हाय री किस्मत! यह माँ बेटी का कैसा मिलन है. बेटी की इच्छा थी कि माँ को अपना घर दिखाती, कुछ सेवा सुश्रूषा करती। समयाभाव में यह संभव न हो पाया। थोड़ी देर में बहु मेरे पास आयी, "मामी आप ही चलिए, कुछ खा पी कर आ जाना, थोड़ा आराम भी कर लेना।" मैं कुछ सोचती माता जी को कुछ ज़रूरत आन पड़ी. उन्होंने मुझे बुलाया और फिर मैं इधर-उधर हो गयी. अब हमारे विदा लेने का समय हो रहा था. लेकिन उन लोगों की बातचीत ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी. मैं बच्ची को गोद में लिए काफी देर से खड़ी थी, थकावट महसूस होने लगी. इधर-उधर नज़र दौड़ा रही थी कि ठौर मिले जहाँ बैठा जा सके. नीचे के फ्लैट में आगे थोड़ा सा अहाता दिखा जो बंद था. कहते है न कि चाहने से कुछ भी मिल जाता है. मुझे पास में एक जगह दिखी। एक नाला था जो सूखा हुआ था, शायद बरसाती नाला होगा। उसमे दोनों ओर घास उगे हुए थे. बस क्या था मैं वही जाकर बैठ गयी. बड़े ही सुकून से पैर नीचे नाले में लटका का बैठ गयी. बेटी को भी संभालने में कोई दिक्कत नहीं हुई. मैं सोच ही रही थी कि मैंने ये पहले क्यों नहीं सोचा कि अचानक तेज आवाज़ सुनाई दी- "मामी! मामी! आप ये कहाँ बैठ गयीं? यह कोई बैठने की जगह है? लोग क्या कहेंगे? यहाँ सभी हाई स्टैंडर्ड लोग रहते हैं. कल हमें बोलेंगे तुम्हारे यहाँ कैसे गेस्ट (मेहमान) आते हैं जिन्हे बैठें का सलीका नहीं पता."
मैं चुप चाप उसकी बेतुकी बातें सुनती रही और फिर धीरे से उठी. मुझे समझ नहीं आ रहा था मैं क्या जवाब दूँ. मैं चुप चाप उसके साथ चल दी जहां सभी लोग थे. सब गप-शप में तल्लीन थे, पर मेरा मन उन गगनचुम्बी इमारतों की ओर उनमें रहने वाले लोगों के इर्द-गिर्द घूम रहा था. क्या यह दूसरी दुनिया है? यहाँ हर काम सोच समझकर तरीके से किया जाता है. हँसना बोलना चलना बैठना भी तरीके से होता है. फिर वह कौन सा संसार है जहाँ धुल-धूसरित बच्चे दौड़ते हुए माँ की गोद में आकर खिलखिलाते हैं? सब्ज़ी बेचनेवाली औरतें बच्चे को संभालती हुई खरीद-बिक्री का काम करती हैं. बच्चा रोता है तो बीच में घुमाकर उसे स्तनपान भी करातीं हैं. ये और बात है कि कुछ शोहदों की नज़र सब्ज़ी खरीदने पर कम और माँ-बच्चे के नैसर्गिक मिलाप की ओर ज्यादा होती है पर वे डरती नहीं, साहस के साथ अपने परिवार और नवजात बच्चे का तालमेल बनाये रखती हैं. यही हमारा असली भारत है.
गाड़ी का हॉर्न बजा, हमारे वापस जाने का समय हो चला था. सबकुछ पीछे छूटता चला गया. लेकिन उस नर्म घास के साथ बिताये वे पल मेरे लिए बेहतरीन थे. उस सुखद एहसास को आज भी अपनी स्मृति पन्नों में संजोये हूँ.
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